इस्लाम और धर्मांतरण – एक वैचारिक अध्ययन
इस्लाम एक ऐसा धर्म है जो आस्था और स्वतंत्रता पर आधारित है, न कि बलपूर्वक या प्रलोभन से धर्मांतरण पर। कुरआन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि धर्म में किसी प्रकार की ज़बरदस्ती की अनुमति नहीं है (कुरआन 2: 256)। इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) का दायित्व केवल ईश्वर का संदेश लोगों तक पहुँचाना था, न कि किसी को इस्लाम स्वीकार करने के लिए विवश करना (कुरआन 42: 48)। इस्लाम मानता है कि यह संसार मानव के लिए एक परीक्षा स्थल है, जहाँ उसे अपने कर्मों के आधार पर परखा जाता है। हर व्यक्ति को धर्म और आस्था के मामले में स्वतंत्रता प्राप्त है, और उसकी अंतिम जाँच कियामत के दिन होगी। इतिहास में मुस्लिम शासकों, विशेषकर भारत में, पर जबरन धर्मांतरण के आरोप तथ्यहीन हैं। 664 वर्षों के लंबे मुस्लिम शासन के बावजूद, भारत की अधिकांश आबादी गैर-मुस्लिम रही, जो इस बात का प्रमाण है कि मुस्लिम शासकों ने कभी भी धर्मांतरण के लिए बल प्रयोग नहीं किया। यदि वे ऐसा करते तो आज भारत का धार्मिक परिदृश्य पूरी तरह से बदल गया होता। इस्लाम का मूल संदेश है कि धर्मांतरण केवल स्वेच्छा और आस्था पर आधारित होना चाहिए। न तो बल प्रयोग और न ही प्रलोभन इस्लाम में धर्मांतरण के लिए स्वीकार्य हैं।
फैसल सुल्तान
इस्लाम धर्म में धर्मांतरण का विषय हमेशा से चर्चा का केंद्र रहा है, खासकर जब इसके बारे में गलतफहमियां और मिथ्याचार उत्पन्न होते हैं। यह धारणा कि इस्लाम में बल प्रयोग अथवा प्रलोभन द्वारा धर्मांतरण की स्वीकृति है, न केवल गलत है बल्कि ऐतिहासिक और धार्मिक रूप से भी असंगत है। इस सम्पादकीय लेख का उद्देश्य इस्लाम में धर्मांतरण की वैचारिक नींव को स्पष्ट करना है, साथ ही यह समझाना है कि कैसे बल प्रयोग या प्रलोभन द्वारा धर्मांतरण की अवधारणा इस्लाम के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। साथ ही, यह लेख भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम शासकों के शासनकाल के दौरान धर्मांतरण के संदर्भ में फैली भ्रांतियों का भी खंडन करेगा।
इस्लाम में धर्मांतरण की वैचारिकी
इस्लाम धर्म का आधार व्यक्तिगत आस्था और स्वेच्छा पर टिका है। इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने यह स्पष्ट रूप से बताया कि उनका कार्य केवल सत्य का प्रचार करना है, न कि किसी को जबरन मुसलमान बनाना। कुरआन की आयत (4: 165) के अनुसार, पैग़म्बर का कार्य सत्य से आगाह करना है ताकि किसी के पास कोई बहाना न रहे कि उसे वास्तविकता का ज्ञान नहीं था। इस्लाम में यह सिखाया गया है कि यह संसार मानव के लिए परीक्षा स्थल है, और हर व्यक्ति को कर्म की स्वतंत्रता प्राप्त है। कुरआन (2: 256) में स्पष्ट कहा गया है कि धर्म में कोई बल प्रयोग नहीं है। यह आयत इस्लाम के उस मूल सिद्धांत को दर्शाती है जिसमें व्यक्तिगत आस्था को सर्वोच्च महत्व दिया गया है।
इस्लाम में बल प्रयोग अथवा प्रलोभन द्वारा धर्मांतरण का कोई स्थान नहीं है। पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) को निर्देश दिया गया कि उनका कार्य केवल संदेश पहुंचाना है, किसी पर अपनी बात थोपना नहीं। कुरआन (42: 48) में कहा गया है कि "तुम्हारा दायित्व केवल ईश्वरीय संदेशों को लोगों तक पहुंचाना है।" इसके अलावा, कुरआन (10: 99) में स्पष्ट किया गया है कि यदि अल्लाह चाहता तो सभी लोग मुस्लिम हो जाते, लेकिन वह ऐसा नहीं करता क्योंकि उसे मानव के कर्मों की परीक्षा लेनी है।
प्रलोभन और धर्मांतरण
धर्मांतरण के संबंध में इस्लाम की स्पष्ट स्थिति यह है कि प्रलोभन द्वारा धर्मांतरण भी स्वीकार्य नहीं है। इतिहास में एक उदाहरण मिलता है कि पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) के समय कुछ लोगों ने अकाल राहत के लोभ में इस्लाम ग्रहण किया था, लेकिन उन्हें इस्लाम में स्वीकार नहीं किया गया। कुरआन के अध्याय (49: 14) में इसका प्रमाण मिलता है। इस्लाम का यह सिद्धांत है कि जो इस धर्म को स्वीकार करता है, वह स्वेच्छा से और पूरी आस्था के साथ करता है, न कि किसी भौतिक प्रलोभन या दबाव के कारण।
कुरआन में यह स्पष्ट कहा गया है कि "यह किताब तुम्हारे रब की ओर से है। जो चाहे मान ले, जो चाहे इंकार कर दे" (कुरआन 18: 29)। इस प्रकार, इस्लाम धर्मांतरण को केवल तभी वैध मानता है जब वह व्यक्ति की स्वतः प्रेरणा और आस्था से हो, न कि किसी बाहरी दबाव या लालच से।
भारत में मुस्लिम शासकों द्वारा धर्मांतरण का मिथक
जब बात भारतीय उपमहाद्वीप की आती है, तो अक्सर यह आरोप लगाया जाता है कि मुस्लिम शासकों ने जबरन धर्मांतरण करवाए। हालांकि, इस तरह के आरोप ऐतिहासिक तथ्यों से पूरी तरह असंगत हैं। मुसलमानों ने भारत में 1193 ई. से 1857 ई. तक लगभग 664 वर्षों तक शासन किया। यदि मुस्लिम शासक धर्मांतरण की नीति अपनाते तो इतने लंबे शासनकाल में निश्चित रूप से भारत की जनसंख्या का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम हो जाता।
इतिहास में यह देखा गया है कि मुस्लिम शासकों ने अपने शासनकाल में कभी भी जबरन धर्मांतरण की नीति नहीं अपनाई। उदाहरण के लिए, औरंगज़ेब का शासनकाल (1658-1707) 49 वर्षों तक चला, जो उस समय के सबसे लंबी अवधि वाले मुस्लिम शासकों में से एक था। यदि औरंगज़ेब जैसे शासक धर्मांतरण की नीति अपनाते तो यह असंभव था कि इतने लंबे शासनकाल में भारत का सांप्रदायिक ढांचा यथावत रहता। इसके विपरीत, मुस्लिम शासकों ने धार्मिक सहिष्णुता और विविधता को बढ़ावा दिया।
कई इतिहासकारों ने इस बात की पुष्टि की है कि मुस्लिम शासनकाल के दौरान धार्मिक स्वतंत्रता बनी रही और किसी भी धार्मिक समूह पर इस्लाम कबूल करने के लिए दबाव नहीं डाला गया। कुरआन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अल्लाह किसी को इस्लाम कबूल करने के लिए मजबूर नहीं करता, फिर मुस्लिम शासकों पर ऐसे आरोप लगाना पूरी तरह से निराधार है।
धर्मांतरण के प्रति इस्लाम का दृष्टिकोण
इस्लाम में धर्मांतरण एक आस्था और नैतिकता पर आधारित प्रक्रिया है। यह धर्म किसी को अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि सच्चाई की ओर मार्गदर्शन करने के लिए आमंत्रित करता है। कुरआन (2: 272) में कहा गया है कि "यह तुम्हारा काम नहीं है कि किसी को मार्गदर्शन दो, बल्कि अल्लाह जिसे चाहे, उसे मार्गदर्शन देता है।" इस आयत से स्पष्ट होता है कि इस्लाम किसी भी प्रकार के प्रलोभन या बल प्रयोग को नकारता है।
इस्लाम के इतिहास में, पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने कभी भी किसी को इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर नहीं किया। उनके अनुयायी भी इसी शिक्षण का पालन करते रहे हैं। धर्मांतरण की प्रक्रिया में केवल स्वेच्छा, आस्था, और सच्चाई की खोज का स्थान है।
इस्लाम का सन्देश
इस्लाम का संदेश स्पष्ट है – धर्मांतरण केवल उसी स्थिति में वैध है जब वह व्यक्ति की स्वतः प्रेरणा से हो। इस्लाम किसी को भी बल प्रयोग या प्रलोभन से धर्मांतरण करने के लिए बाध्य नहीं करता। इतिहास में मुसलमानों पर लगाए गए जबरन धर्मांतरण के आरोप तथ्यात्मक रूप से निराधार हैं।
इस्लाम का वास्तविक उद्देश्य आस्था के आधार पर एक नैतिक और आध्यात्मिक समाज की स्थापना करना है, जहां हर व्यक्ति अपनी स्वतंत्रता से धर्म का चयन कर सके। यह मानवता के लिए शांति और समृद्धि का संदेश है, और इस्लाम का यह संदेश हर समय प्रासंगिक बना रहेगा।