नेपाल में GenZ आंदोलन: सोशल मीडिया प्रतिबंध से सरकार के पतन तक की पूरी कहानी |
नेपाल में सोशल मीडिया प्रतिबंध के विरोध में शुरू हुए युवा आंदोलन ने अप्रत्याशित रूप ले लिया और केपी शर्मा ओली की सरकार को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया। प्रदर्शनों के दौरान हुई पुलिस की गोलीबारी में कम से कम २० लोगों की मौत हो गई और सैकड़ों घायल हुए। आंदोलन ने हिंसक रूप लेते हुए संसद भवन और नेताओं के आवासों में आगजनी की। इसके चलते देशव्यापी कर्फ्यू लगा दिया गया, जिससे भारत-नेपाल सीमा (जोगबनी-विराटनगर) का आवागमन ठप्प हो गया। भारत ने अपने नागरिकों को नेपाल यात्रा से बचने और हेल्पलाइन नंबर का उपयोग करने की सलाह दी है।

भारत नेपाल सीमा(अशोक/विशाल)
नेपाल, जिसने 2008 में सदियों पुरानी राजशाही को समाप्त कर एक लोकतांत्रिक गणतंत्र का रास्ता अपनाया था, वह एक बार फिर से उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। केपी शर्मा ओली के नेतृत्व वाली बामपंथी सरकार पर भ्रष्टाचार और तानाशाही ढंग से चलने के आरोप लगते रहे थे। जनता, विशेषकर युवा वर्ग, में एक गहरा असंतोष धीरे-धीरे पनप रहा था। उन्हें लगता था कि जिस लोकतंत्र के लिए उन्होंने संघर्ष किया था, वह अब सिर्फ कागजों में सिमट कर रह गया है और सत्ता में बैठे लोग उनकी आवाज़ दबाने में लगे हैं। यह असंतोष एक टिंडरबॉक्स की तरह था, जिसमें आग लगने के लिए बस एक चिंगारी की देर थी।
वह चिंगारी सितंबर के पहले सप्ताह में तब चली जब नेपाल सरकार ने अचानक देश में कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकार का तर्क था कि इन प्लेटफ़ॉर्म्स का दुरुपयोग अवैध गतिविधियों और गलत सूचना फैलाने के लिए किया जा रहा है। लेकिन नेपाल के युवाओं के लिए, जिनकी पीढ़ी डिजिटल दुनिया में पली-बढ़ी थी, यह फैसला उनकी अभिव्यक्ति की आजादी पर एक सीधा हमला था। सोशल मीडिया उनके लिए सिर्फ मनोरंजन का जरिया नहीं, बल्कि दुनिया से जुड़ने, अपनी बात रखने और सरकार की नीतियों की आलोचना करने का एकमात्र मंच था। इस प्रतिबंध ने उनके लोकतांत्रिक अधिकारों को छीन लिया था। आक्रोश तेजी से फैला।
विरोध की शुरुआत राजधानी काठमांडू से हुई। युवाओं के छोटे-छोटे समूह सड़कों पर उतरे, अपने हाथों में तख्तियाँ थीं और मुँह से नारे लगा रहे थे। यह आंदोलन इतना स्वतःस्फूर्त और संगठित था कि इसे 'जेन जेड मूवमेंट' का नाम दिया गया। यह आग देखते-ही-देखते पूरे देश में फैल गई। भारत-नेपाल सीमा से सटे विराटनगर शहर में भी युवाओं ने बड़ी संख्या में सड़कों पर कब्जा कर लिया। नारेबाजी ने जल्द ही एक उग्र रूप ले लिया। प्रदर्शनकारियों का गुस्सा सिर्फ सरकारी नीतियों तक सीमित नहीं था, बल्कि पूरे तंत्र के प्रति फूट पड़ा जिसे वे भ्रष्ट और जनविरोधी मानते थे।
नेपाल सरकार आंदोलन की तीव्रता से सकते में आ गई। स्थिति को 'नियंत्रित' करने के लिए सुरक्षा बलों को कड़े कदम उठाने का आदेश दिया गया। 8 सितंबर की उस काली शाम को, जब प्रदर्शनकारी शांतिपूर्वक अपना विरोध दर्ज करा रहे थे, सुरक्षा बलों ने उन पर गोलीबारी शुरू कर दी। गोलियाँ चलीं और निर्दोष युवा खून से लथपथ होकर जमीन पर गिर पड़े। उस रात तक कम से कम दो दर्जन नेपाली नागरिकों की मौत हो चुकी थी और ढाई सौ से अधिक लोग घायल होकर अस्पतालों के इमरजेंसी वार्डों में पड़े थे। यह घटना एक ऐसा मोड़ थी जिसने आंदोलन को और भी हिंसक बना दिया। मरने वालों की खबर ने पूरे देश में आग में घी का काम किया।
गोलीबारी की खबर से आहत और क्रोधित प्रदर्शनकारियों ने अपना रुख बदल लिया। उनका गुस्सा अब सीधे तौर पर सरकार और उसके प्रतिनिधियों के खिलाफ फूट पड़ा। प्रदर्शनकारियों के एक समूह ने नेपाल के डिप्टी पीएम और वित्त मंत्री को दौड़-दौड़कर पीटा। उन्होंने राजधानी काठमांडू में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के निजी आवासों, विभिन्न राजनीतिक दलों के कार्यालयों और यहाँ तक कि संसद भवन को भी आग के हवाले कर दिया। सुप्रीम कोर्ट की इमारत और प्रमुख मीडिया संस्थान कांतिपुर का दफ्तर भी जलकर राख हो गया।
इसी दौरान एक दुखद और हैरान कर देने वाली घटना घटी। प्रदर्शनकारियों ने पूर्व प्रधानमंत्री झलनाथ खनाल के आवास पर हमला कर दिया और उसमें आग लगा दी। इस हमले में उनकी पत्नी राजलक्ष्मी खनाल बुरी तरह घायल हो गईं और बाद में उनकी मौत हो गई। इस घटना ने पूरे आंदोलन पर एक गहरा सवाल खड़ा कर दिया।
हिंसा और अराजकता ने पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया। नेपाल प्रशासन ने स्थिति पर काबू पाने के लिए काठमांडू, विराटनगर और झापा जिले सहित कई शहरों में कर्फ्यू लगा दिया। सड़कें सूनी हो गईं। हवाई अड्डों को बंद कर दिया गया; काठमांडू जा रही एक इंडिगो एयरलाइंस की फ्लाइट को लखनऊ में उतरना पड़ा।
इस बवंडर के बीच, सरकार की नींव हिलने लगी। सबसे पहले गृह मंत्री रमेश लेखक ने इस्तीफा दे दिया। उनके बाद कृषि मंत्री और स्वास्थ्य मंत्री ने भी पद छोड़ दिया। प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने सर्वदलीय बैठक बुलाकर समाधान निकालने की कोशिश की, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। आंदोलन थमने का नाम नहीं ले रहा था। अंततः, एक शासनकाल के बाद, प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ इस्तीफा देना पड़ा और खबरों के मुताबिक, वह अपने कुछ करीबी सहयोगियों के साथ देश छोड़कर चले गए। कुछ समय बाद, राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल ने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया। नेपाल की सत्ता की धुरी पूरी तरह से टूट चुकी थी।
नेपाल की यह आग सीमा पार भारत में भी सुनाई दी। बिहार के अररिया जिले की जोगबनी सीमा चौकी, जो नेपाल के विराटनगर से सटी हुई है, का आवागमन पूरी तरह से ठप्प हो गया। यह चौकी भारतीय नागरिकों, विशेष रूप से बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए नेपाल जाने का एक प्रमुख रास्ता है, खासकर उन लोगों के लिए जो विराटनगर में सस्ते और अच्छे नेत्र चिकित्सा के लिए जाते हैं। इन मरीजों की परेशानी बढ़ गई।
भारत सरकार सतर्क हो गई। भारतीय दूतावास, काठमांडू ने नेपाल में रह रहे भारतीय नागरिकों के लिए एक हेल्पलाइन नंबर (+977-9808602881) जारी किया और गैर-जरूरी यात्रा टालने की सलाह दी। भारत-नेपाल सीमा पर सशस्त्र सीमा बल (SSB) और स्थानीय पुलिस की तैनाती बढ़ा दी गई। बिहार के किशनगंज और उत्तर बंगाल के पुलिस अधिकारियों ने सीमा का निरीक्षण किया और बताया कि भारतीय क्षेत्र में स्थिति शांतिपूर्ण है, लेकिन सतर्कता बरती जा रही है।
नेपाल की यह कहानी सिर्फ एक सरकार के पतन की कहानी नहीं है, बल्कि एक पीढ़ी के विद्रोह, सत्ता के अहंकार के टूटने और एक राष्ट्र के फिर से अपने को तलाशने की कहानी है। यह घटना इस बात का प्रमाण है कि डिजिटल युग में युवा शक्ति को नजरअंदाज करना कितना खतरनाक हो सकता है।
नेपाल अब एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ उसके सामने चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ हैं। एक नई सरकार का गठन, हिंसा से तबाह हुए बुनियादी ढाँचे की मरम्मत, और सबसे बढ़कर, जनता का विश्वास फिर से हासिल करना – ये सभी कार्य बेहद मुश्किल हैं। कई सवाल अब भी अनुत्तरित हैं: क्या यह आंदोलन वास्तव में एक जनक्रांति थी या इसमें किसी बाहरी ताकत का हाथ था? क्या नेपाल अपनी संस्कृति और पहचान को फिर से परिभाषित कर पाएगा? क्या नई सरकार जनता की उम्मीदों पर खरी उतर पाएगी?
नेपाल ने आजादी की जो ज्वाला जलाई है, उसे अब एक स्थिर, पारदर्शी और जनता-केंद्रित लोकतंत्र की ओर मोड़ना होगा। जैसा कि कहा गया है, राख पर महल बनाना आसान नहीं होता। नेपाल की यह यात्रा अभी शुरू ही हुई है, और पूरी दुनिया की निगाहें इस छोटे से हिमालयी देश पर टिकी हैं, यह देखने के लिए कि वह इस उथल-पुथल से कैसे उबरता है और अपने भविष्य का निर्माण करता है।