फिलिस्तीन का हल ही एकमात्र विकल्प: इजराइल के अखबार हारेट्ज़ के पत्रकार एरी शावित की गंभीर चेतावनी

इजराइल और फिलिस्तीन के बीच बढ़ते संघर्ष के बीच, इजराइल के वरिष्ठ पत्रकार एरी शावित ने हारेट्ज़ में एक महत्वपूर्ण लेख लिखा है, जिसमें इजराइल की कमजोरियों और फिलिस्तीनियों के अधिकारों की मान्यता की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। शावित ने चेतावनी दी है कि यदि इजराइल ने कब्जा समाप्त नहीं किया और उपनिवेशवाद को जारी रखा, तो यहूदी लोकतांत्रिक राज्य को बनाए रखना असंभव हो जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि इजराइलियों को फिलिस्तीनियों की वास्तविकता को स्वीकार करना होगा, ताकि समाज में समरसता और स्थायी शांति की संभावनाएं बढ़ सकें। शावित ने नकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले इजराइलियों को सलाह दी है कि यदि वे फिलिस्तीनियों के अधिकारों का सम्मान नहीं करते, तो उन्हें इजराइल छोड़ देना चाहिए, ताकि वे अन्य स्थानों पर जाकर नए सिरे से जीवन यापन कर सकें। शावित ने ऐतिहासिक मिथकों की वास्तविकता पर भी सवाल उठाया है, विशेष रूप से "टेम्पल माउंट" के संदर्भ में, जो इजराइल की पहचान और नीतियों को प्रभावित करता है। उनका कहना है कि इन मिथकों को चुनौती देकर ही इजराइल और फिलिस्तीनी समुदायों के बीच वास्तविक संवाद स्थापित हो सकेगा। अंततः, शावित का लेख इजराइल के लिए एक नई दिशा का संकेत देता है, जहां एक समावेशी दृष्टिकोण अपनाने से न केवल इजराइल की पहचान मजबूत होगी, बल्कि क्षेत्र में स्थायी शांति की संभावनाएं भी बढ़ेंगी।

फिलिस्तीन का हल ही एकमात्र विकल्प: इजराइल के अखबार हारेट्ज़ के पत्रकार एरी शावित की गंभीर चेतावनी

फैसल सुल्तान

इजराइल और फिलिस्तीन के बीच संघर्ष का विस्तार जैसे-जैसे होता जा रहा है, वैसे-वैसे इजराइल की कमजोरियाँ उजागर हो रही हैं। अमेरिका और इजराइल के बीच बढ़ते मतभेद, इजराइल की राजनीतिक और सामाजिक चुनौतियों को और बढ़ा रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में, इजराइल के वरिष्ठ पत्रकार एरी शावित द्वारा हारेट्ज़ में प्रकाशित ताजा लेख ने गंभीर चिंताओं को उठाया है, जो 7 अक्टूबर 2023 से पहले सोचना भी संभव नहीं था। शावित ने अपनी लेखनी में इजराइल की स्थिति का विश्लेषण करते हुए कहा कि अब समय आ गया है कि इजराइल फिलिस्तीनियों के अधिकारों को मान्यता दे और कब्जा खत्म करे, अन्यथा इजराइल में रहना मुश्किल हो जाएगा।

इजराइल की सच्चाई का सामना

शावित ने अपने लेख में यह स्पष्ट किया है कि इजराइल अब एक ऐसे मोड़ पर पहुंच चुका है जहां से वापसी की संभावना नहीं दिखाई देती। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यदि इजराइल का कब्जा समाप्त नहीं होता और उपनिवेशवाद (कॉलोनियलिज्म) जारी रहता है, तो यहूदी लोकतांत्रिक राज्य को बनाए रखना असंभव हो जाएगा। शावित का मानना है कि वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए, यहूदियों को एक नई राजनीतिक भाषा अपनाने की आवश्यकता है, जो न केवल वास्तविकताओं को स्वीकार करे, बल्कि यह भी स्वीकार करे कि फिलिस्तीनी इस भूमि के वास्तविक निवासी हैं।

इजराइल के संबंध में इस स्थिति को समझना महत्वपूर्ण है। शावित की चिंताएं केवल राजनीतिक नहीं हैं, बल्कि वे मानवता और न्याय के मूलभूत सिद्धांतों से जुड़ी हुई हैं। जब एक देश अपने भीतर के असंतोष और संघर्षों को नजरअंदाज करता है, तो वह अपने अस्तित्व को खतरे में डालता है। शावित का यह विचार कि फिलिस्तीनियों को मान्यता दी जानी चाहिए, एक साहसिक कदम है। यह कदम न केवल इजराइल की स्थिति को मजबूत करेगा, बल्कि यह क्षेत्र में शांति की संभावनाओं को भी बढ़ाएगा।

इसका एक और पहलू यह है कि यहूदियों को अपनी पहचान और संस्कृति की रक्षा के लिए भी आवश्यक है कि वे एक समावेशी दृष्टिकोण अपनाएं। जब वे अन्य समुदायों, विशेष रूप से फिलिस्तीनियों, के अस्तित्व को मान्यता देंगे, तो यह न केवल सामाजिक समरसता को बढ़ावा देगा, बल्कि भविष्य में स्थायी शांति की संभावनाओं को भी खोल देगा। इसके अलावा, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में भी इजराइल की छवि को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी।

इजराइल के भविष्य के लिए, शावित की यह चेतावनी महत्वपूर्ण है। यदि यहूदी राज्य अपनी नीतियों में बदलाव नहीं लाते, तो वे न केवल अपनी लोकतांत्रिक पहचान को खो देंगे, बल्कि एक अस्थिरता के दौर में भी प्रवेश कर सकते हैं। इस संदर्भ में, यह अत्यंत आवश्यक है कि राजनीतिक नेता एक नई सोच विकसित करें, जो न केवल इजराइल के हित में हो, बल्कि उसके पड़ोसी देशों के लिए भी सहानुभूतिपूर्ण हो।

शावित ने जो आवाज उठाई है, वह इजराइल के लिए एक नई दिशा का संकेत देती है। एक ऐसा रास्ता जो न केवल लोकतंत्र को बनाए रखेगा, बल्कि क्षेत्र में स्थायी शांति की स्थापना में भी सहायक होगा। यह कदम इजराइल की पहचान को मजबूती प्रदान करेगा और साथ ही यह सुनिश्चित करेगा कि फिलिस्तीनी लोगों के अधिकारों का सम्मान किया जाए। अंततः, यह न केवल इजराइल के लिए, बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए एक सकारात्मक विकास होगा।

अस्वीकार की स्थिति में इजराइल छोड़ने की सलाह

शावित ने अपने लेख में उन इजराइलियों के लिए एक महत्वपूर्ण सलाह दी है, जो फिलिस्तीनियों के अधिकारों को नकारते हैं और इजराइल में जारी कब्जे को बनाए रखना चाहते हैं। उन्होंने इस दृष्टिकोण के खिलाफ एक सख्त रुख अपनाया है और दो साल पहले रोजल अल्फर द्वारा दिए गए सुझाव का समर्थन किया। अल्फर ने सुझाव दिया था कि ऐसे व्यक्तियों को इजराइल छोड़कर चले जाना चाहिए, और शावित ने इस विचार को आगे बढ़ाया है।

शावित ने स्पष्ट किया कि अगर इजराइल अपने वर्तमान स्थिति से बाहर नहीं निकलता, तो इस स्थिति को सुधारने के लिए कुछ कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है। उनका कहना है कि फिलिस्तीनी अधिकारों का नकारना और कब्जे को जारी रखना केवल इजराइल की सामाजिक और राजनीतिक स्थिरता को ही नहीं, बल्कि उसके भविष्य को भी खतरे में डाल देगा। इसलिए, उन्होंने ऐसे लोगों के लिए एक विकल्प प्रस्तुत किया है—इजराइल को छोड़कर सैन फ्रांसिस्को, बर्लिन या पेरिस जैसे स्थानों पर जाना।

इस सलाह का उद्देश्य उन इजराइलियों को जागरूक करना है, जो फिलिस्तीनी संघर्ष के प्रति उदासीनता दिखा रहे हैं। शावित का मानना है कि यदि यह लोग इजराइल में रहना चाहते हैं, तो उन्हें उस वास्तविकता को स्वीकार करना होगा, जिसमें फिलिस्तीनी लोग भी इस भूमि के वास्तविक निवासी हैं। उनके अनुसार, इजराइल का भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि वह अपने भीतर की समस्याओं को कैसे हल करता है।

शावित का यह दृष्टिकोण न केवल एक सुझाव है, बल्कि यह एक चेतावनी भी है कि अगर इजराइल की नीति में बदलाव नहीं आता, तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। फिलिस्तीनी लोगों के अधिकारों को नजरअंदाज करना इजराइल के लिए एक आत्मघाती कदम होगा। इससे न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इजराइल की छवि प्रभावित होगी, बल्कि घरेलू स्तर पर भी यह सामाजिक और राजनीतिक संघर्षों को बढ़ावा देगा।

अल्फर और शावित के इस विचार से यह स्पष्ट होता है कि इजराइल को अपनी पहचान और लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाने की आवश्यकता है। अगर यह लोग इजराइल के नागरिक हैं और उन्हें अपनी पहचान की परवाह है, तो उन्हें यह समझना होगा कि फिलिस्तीनी लोगों का अधिकार भी महत्वपूर्ण है।

इस प्रकार, शावित की सलाह एक नकारात्मक स्थिति से बाहर निकलने का एक प्रयास है। यह केवल उन लोगों के लिए नहीं है, जो फिलिस्तीनियों के अधिकारों का नकारन करते हैं, बल्कि यह सभी इजराइलियों के लिए एक संकेत है कि वे एक नई सोच अपनाएं। इजराइल का भविष्य इस बात पर निर्भर करेगा कि वह अपने भीतर के असंतोष को कैसे प्रबंधित करता है और अपने नागरिकों के अधिकारों का सम्मान कैसे करता है।

अंततः, शावित का यह संदेश यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता को दर्शाता है कि इजराइल एक ऐसा देश बने, जो न केवल अपने लोगों के लिए, बल्कि उसके पड़ोसी देशों के लिए भी न्याय और समानता का प्रतीक बने।

ऐतिहासिक मिथकों की वास्तविकता

शावित ने इजराइल के धार्मिक और ऐतिहासिक मिथकों पर गंभीर सवाल उठाए हैं, जो उस देश की पहचान और नीतियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उनका कहना है कि इजराइल ने जो "टेम्पल माउंट" को अपनी धार्मिक पहचान का आधार माना है, वह वास्तव में ऐतिहासिक दृष्टि से प्रमाणित नहीं है। इस पर ध्यान देते हुए, उन्होंने उल्लेख किया कि यहूदी धर्म के अनुयायी इस स्थल को अपने पवित्र स्थान के रूप में मानते हैं, लेकिन इसका वास्तविक ऐतिहासिक अस्तित्व संदिग्ध है।

तेल अवीव विश्वविद्यालय के प्रमुख पुरातत्वविद इजराइल फिलस्तीन ने भी इस विचार का समर्थन किया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि "टेम्पल माउंट" का कोई ठोस ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, और इसे एक मिथक के रूप में स्थापित किया गया है। फिलस्तीन के अनुसार, यह विचार एक काल्पनिक निर्माण है, जिसका उद्देश्य इजराइल के उपनिवेशवादी लक्ष्यों को पूरा करना है।

हारेट्ज़ के वरिष्ठ पत्रकार ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जब से इजराइली फिलिस्तीन में आए हैं, उन्हें एहसास हुआ है कि वे ज़ायोनी आंदोलन द्वारा बनाए गए झूठ का नतीजा भुगत रहे हैं, जिसने पूरे इतिहास में यहूदी पहचान के बारे में हर प्रकार के धोखे का सहारा लिया है। उनका कहना है कि हिटलर द्वारा होलोकॉस्ट के रूप में जो किया गया, उसका दोहन कर ज़ायोनी आंदोलन दुनिया को यह समझाने में सफल रहा कि फिलिस्तीन वह वादा किया गया देश है और वह नामित टेम्पल माउंट मस्जिदुल अक्सा के नीचे मौजूद है। जिसे अमेरिकी और यूरोपीय करदाताओं के पैसे से पाला गया, जब तक कि वह एक परमाणु राक्षस में नहीं बदल दिया गया।

इस इजराइली पत्रकार ने पश्चिमी और यहूदी पुरातत्त्व के विशेषज्ञों से मदद मांगी है, जिनमें सबसे प्रसिद्ध तेल अवीव विश्वविद्यालय के इजराइल फिलेंस्टीन हैं, जिन्होंने पुष्टि की कि मंदिर, यानी टेम्पल माउंट, एक झूठ और एक गढ़ी हुई कहानी है जो अस्तित्व में नहीं है, और सभी खुदाई ने साबित कर दिया है कि यह हजारों साल पहले गायब हो गया था। कई यहूदी विद्वानों ने इसको स्पष्ट रूप से पुष्टि की है और कई पश्चिमी विशेषज्ञों ने भी इसे स्वीकार किया है। इनमें से अंतिम पुष्टि 1968 में हुई, जब ब्रिटिश पुरातत्वज्ञ डॉ. कैथरीन कैनियन, जो यरूशलम में ब्रिटिश स्कूल ऑफ आर्कियोलॉजी में खुदाई की निदेशक थीं, ने यरूशलम में खुदाई की और मस्जिदुल अक्सा के नीचे सुलैमान के मंदिर के निशानों की वास्तविकता के बारे में अपनी शोध के चलते उन्हें फिलिस्तीन से निकाल दिया गया। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि सुलैमान के मंदिर का कोई निशान नहीं है और पाया कि जिसे इजराइली सुलैमान के अस्तबल के रूप में कहते हैं, उसका सुलैमान या अस्तबल से कोई संबंध नहीं है, बल्कि यह फिलिस्तीन के विभिन्न हिस्सों में आमतौर पर बनाए गए महलों का एक आर्किटेक्चरल मॉडल है। यह सभी तथ्यों के बावजूद है कि कैथरीन कैनियन फिलिस्तीन एक्सप्लोरेशन एंड सोसाइटी से आई थीं, जिसका उद्देश्य बाइबल में दिए गए बयानों के बारे में स्पष्टता प्रदान करना था, क्योंकि उन्होंने 19वीं सदी के मध्य में ब्रिटेन में नजदीकी पूर्व के इतिहास के बारे में बहुत सक्रियता दिखाई थी। इस इजराइली यहूदी लेखक ने इस बात पर जोर दिया है कि झूठ का नतीजा इजराइली लोगों को परेशान करता है।

शावित ने यह भी बताया कि यह मिथक फिलिस्तीनी भूमि पर कब्जा करने के लिए एक औजार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। इसका उद्देश्य केवल धार्मिक पहचान को नहीं, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक नियंत्रण को भी मजबूत करना है। इस तरह के मिथक को स्थापित करने से इजराइल ने अपनी पहचान को एक ऐसा ढांचा दिया है, जिसमें केवल यहूदियों के अधिकारों को प्राथमिकता दी जाती है, जबकि फिलिस्तीनियों की पहचान और उनके अधिकारों को नजरअंदाज किया जाता है।

इस संदर्भ में, शावित का तर्क यह है कि यदि इजराइल एक वास्तविक और टिकाऊ शांति चाहता है, तो उसे अपने ऐतिहासिक मिथकों को फिर से परखने की आवश्यकता है। यह आवश्यक है कि इजराइल अपने धार्मिक और ऐतिहासिक पहचान के दावों का पुनर्मूल्यांकन करे और समझे कि ये मिथक केवल एक राजनीतिक उपकरण बन गए हैं। ऐसे मिथकों को चुनौती देकर ही इजराइल और फिलिस्तीनी दोनों समुदायों के बीच वास्तविक संवाद और सहिष्णुता को बढ़ावा दिया जा सकता है।

इस प्रकार, शावित का यह विश्लेषण न केवल इजराइल की पहचान को चुनौती देता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि कैसे ऐतिहासिक मिथक किसी देश की नीतियों और सामाजिक ढांचे को प्रभावित कर सकते हैं। अगर इजराइल अपने भविष्य को सुरक्षित और स्थायी बनाना चाहता है, तो उसे इन मिथकों के पीछे की सच्चाई को स्वीकार करना होगा।

अंततः, शावित का यह दृष्टिकोण इजराइल की नीति को नए सिरे से परिभाषित करने की आवश्यकता को रेखांकित करता है। केवल ऐतिहासिक साक्ष्यों और वास्तविकताओं के आधार पर ही इजराइल को अपने राजनीतिक और धार्मिक पहचान को आकार देने का प्रयास करना चाहिए। इससे न केवल इजराइल की पहचान में एक नया दृष्टिकोण आएगा, बल्कि इससे क्षेत्र में शांति और स्थिरता की दिशा में भी एक सकारात्मक कदम उठाया जा सकेगा।

इजराइल की आत्म-साक्षात्कार

शावित के अनुसार, इजराइलियों के बीच एक नया जागरूकता विकसित हो रहा है कि फिलिस्तीन में उनका भविष्य अब अनिश्चित है। पहले, इजराइली नागरिकों ने फिलिस्तीनियों को कमजोर और बेबस समझकर उनकी भूमि पर कब्जा कर लिया था। लेकिन हाल के वर्षों में यह स्थिति बदल गई है। 1987 और 2000 में हुए इंतिफादा (विद्रोह) लेकिन अरबी भाषा में इसका अर्थ "उथल पुथल" या फिर किसी से "छुटकारा पाना" होता है. ने यह स्पष्ट कर दिया है कि फिलिस्तीनी अपने अधिकारों और भूमि के लिए संघर्ष करने में पूरी तरह सक्षम हैं।

इन विद्रोहों ने फिलिस्तीनी जनता की दृढ़ता और संघर्ष के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित किया। इससे इजराइलियों को यह अहसास हुआ है कि उनकी स्थिति पहले जैसी नहीं रही। समय की गति के साथ, फिलिस्तीनी संघर्ष ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी ध्यान आकर्षित किया है, जिससे इजराइल की नीतियों पर सवाल उठने लगे हैं।

शावित के अनुसार, यह आत्म-साक्षात्कार इजराइलियों के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ है, जो उन्हें सोचने पर मजबूर कर रहा है कि क्या वे अपनी वर्तमान नीतियों को जारी रख सकते हैं। फिलिस्तीनी संघर्ष ने इजराइल को एक नया दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित किया है, जहां उन्हें वास्तविकता का सामना करते हुए एक नए तरीके से सोचने की आवश्यकता है। यह परिवर्तन न केवल इजराइलियों के लिए, बल्कि पूरे क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण है, जिससे भविष्य में स्थायी शांति की संभावनाएं बढ़ सकती हैं।

नितिन्याहू की नीति पर सवाल

शावित ने इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नितिन्याहू की नीतियों की तीव्र आलोचना की है। उनके अनुसार, नितिन्याहू का यह विचार कि अमेरिका या संयुक्त राष्ट्र इजराइल को कब्जा समाप्त करने के लिए मजबूर करेंगे, एक भ्रांति है। शावित का मानना है कि इजराइल को अपनी समस्याओं का सामना स्वयं करना होगा, बजाय इसके कि वे अन्य देशों पर निर्भर रहें।

शावित के इस तर्क में यह स्पष्ट होता है कि इजराइल की राजनीतिक दिशा को बदलने की आवश्यकता है, और इसके लिए इजराइली नेतृत्व को अपनी जिम्मेदारियों को स्वीकार करना होगा। नितिन्याहू की नीतियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इजराइल की छवि को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है, जिससे क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर टकराव की स्थिति उत्पन्न हो रही है।

शावित का यह भी कहना है कि यदि इजराइल अपने भविष्य को सुरक्षित रखना चाहता है, तो उसे सक्रिय रूप से शांति प्रक्रिया में शामिल होना होगा और फिलिस्तीनी जनता के अधिकारों को मान्यता देनी होगी। इसके बिना, नितिन्याहू की वर्तमान नीतियां इजराइल के लिए स्थायी समाधान प्रदान नहीं कर सकती। यह सच्चाई इजराइल के लिए एक गंभीर चुनौती है, और इसे हल करने के लिए दृढ़ और समझदारी भरे कदम उठाने की आवश्यकता है।

लेख का निचोड़

इजराइल के वर्तमान हालात को देखते हुए एरी शावित ने स्पष्ट किया कि अब इजराइलियों को यह मान लेना चाहिए कि फिलिस्तीनी इस भूमि के वास्तविक मालिक हैं और उनके अधिकारों को मान्यता देना ही एकमात्र रास्ता है। कब्जा जारी रखना अब इजराइल के लिए संभव नहीं है और अगर इजराइल इस रास्ते पर चलता रहा तो उसका भविष्य संकट में है।

निष्कर्ष: एरी शावित का यह लेख इजराइल के राजनीतिक और सामाजिक ढांचे में एक बड़ा सवाल खड़ा करता है। यह इजराइली समाज और उनके नेतृत्व के सामने एक महत्वपूर्ण चुनौती पेश करता है कि वे अपने भविष्य का कैसे सामना करेंगे। इजराइल के अंदर ही ऐसी आवाज़ें उठ रही हैं जो एक नई सोच और फिलिस्तीनियों के अधिकारों को मान्यता देने की वकालत कर रही हैं।