सीमांचल : न बदलाव की मुहिम को बल मिले और न टूटी सीमांचल वासियों के पैरों में पड़ी राजनीतिक दलों की गुलामी की जंजीर

समाजसेवी सह अमौर विधान सभा क्षेत्र के भावी प्रत्याशी डॉ अबू सायम के अनुसार , तीस प्रतिशत बुजुर्ग की शिकायत यही रही कि अमुक नेता आया तो दूसरा अमुक नेता क्यों नहीं आया। नौजवानों की अपनी अलग की परेशानी यही रही कि उन्हें पेट्रोल और गुटखे की पुड़िया के अभाव में किस दल और किस दल के नेता ने धकेला ।

सीमांचल : न बदलाव की मुहिम को बल मिले और न टूटी सीमांचल वासियों के पैरों में पड़ी राजनीतिक दलों की गुलामी की जंजीर

सीमांचल  (विशाल/पिंटू/विकास)

दूसरे चरण के लोक सभा चुनाव के मद्देनजर गत दिनों संपन्न हुए सीमांचल के किशनगंज , पूर्णिया और कटिहार संसदीय क्षेत्रों के चुनावी प्रचार अभियान से लेकर मतदान तक के दौरान वोट देने और दिलाने की राजनीति जितनी तेज दिखी , उसके विपरीत सीमांचल की इस बार की चुनावी राजनीति में सीमांचल की बदहाली व विनाश की समस्या के कारण और समाधान की बात पूरी तरह से विलुप्त और गौण ही दिखी।

आश्चर्य तो इस बात की रही कि सीमांचल की चुनावी राजनीति में इस बार सीमांचल की समस्याओं की चर्चा तक को विलुप्त रखने के मुख्य और मूल कारण में कोई राजनीतिक पार्टियां,राजनेता नहीं वल्कि जनता और मतदाता ही मुख्य रूप से बने रहे।

वर्तमान की इलेक्ट्रॉनिक युग में सिर्फ एक मोबाइल फोन के सहारे जीने की कोशिश कर रही सीमांचल क्षेत्र की जनता में इस बात का कोई मतलब नहीं दिखा कि वह अपने क्षेत्र के वास्तविक विकास से कोसों दूर क्यों पड़ी हुई है और इस क्षेत्र की समस्याओं को बरकरार रखते हुए राजनीतिक पार्टियाँ यहाँ पर विकास की गति को जानबूझकर क्यों रोक रखी है।

ख़ासकर शिक्षा के क्षेत्र में ध्यान ना देकर जनता को मानसिक रूप से पंगु बनाने पर क्यों राजनीतिक पार्टियां अड़ी हुई है। इसकी पड़ताल की भी जनता ने कोई कोशिश नहीं की।

जनता को इस बार के लोक सभा चुनाव के दौरान यह भी समझ में नहीं आया कि उनकी पिछली पीढ़ी जिस तरह से राजनीतिक दलों की ग़ुलामी करते हुए क्षेत्र से गुजर गई उसी तरह से वह भी राजनीतिक दलों की गुलामी के का बोझ तले अथवा धर्म की ठेकेदारी को बरकरार रखते हुए अपनी जिंदगी गुजारते चले जा रहे हैं।

सीमांचल के पूर्णिया, कटिहार, किशनगंज में लोक सभा चुनाव के  दूसरे चरण का मतदान संपन्न होने के बाद अब तीसरे चरण का मतदान सीमांचल के शेष बचे एकमात्र लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र अररिया में आगामी 7 मई को होने वाला है और ताज्जुब की बात है कि वहां पर भी तेजी से चल रहे लोक सभा चुनाव के प्रचार अभियान के दौरान अब तक नेताओं से लेकर जनता तक ने अपनी परंपरागत समस्याओं के समाधान की दिशा में अपना अपना मुंह तक नहीं खोला है।

इस संदर्भ में पिछले पंद्रह दिनों के अपने चुनावी अनुभवों को साझा करते हुए पूर्णिया जिले के अमौर विधान सभा क्षेत्र के लोकप्रिय समाजसेवी सह आने वाले अगले विधान सभा आम चुनाव में बतौर विधान सभा प्रत्याशी कूदने की पुरजोर तैयारी में जुटे अमौर विधान सभा क्षेत्र के भावी प्रत्याशी डॉ अबू सायम ने बताया कि उन्होंने लोक सभा चुनाव के दौरान क्षेत्र भ्रमण के क्रम में क्षेत्र की जनता की बेहद जरूरी मुद्दों को देखा और समझा तो लगा कि  इस क्षेत्र के लोग अक्सर विकास की बातों को चुनाव का मुद्दा समझते ही नहीं हैं , बल्कि उन्हें सिर्फ इसी बात से मतलब रहा है कि चुनाव को लेकर उनके बीच कौन सा राजनीतिक मदारी आया और कौन नहीं आया।

प्रधानमंत्री कौन बनेगा, मोदी ने क्या बोला, एमआईएम सुप्रीमों ओवैसी ने क्या क्या जवाब रटे रटाए तोते की तरह इस क्षेत्र में बखान किया और किस किस दल का नेता पैसा बांटा और किस दल ने पैसे नहीं दिया। कौन नेता और दल पैसा अभी तक दे रहा है , किसकी रैली में कितने लोग आए  और कितनी बार तालियां बजे। अर्थात इस पूरे सीमांचल में इस बार के लोक सभा चुनाव के दौरान बस यही सब मुख्य चर्चा का मुद्दा बना रहा।

समाजसेवी सह अमौर विधान सभा क्षेत्र के भावी प्रत्याशी डॉ अबू सायम के अनुसार , तीस प्रतिशत बुजुर्ग की शिकायत यही रही कि अमुक नेता आया तो दूसरा अमुक नेता क्यों नहीं आया। नौजवानों की अपनी अलग की परेशानी यही रही कि उन्हें पेट्रोल और गुटखे की पुड़िया के अभाव में किस दल और किस दल के नेता ने धकेला ।

मानो उसके बग़ैर इलेक्शन की परिकल्पना ही मुमकिन ही नहीं रह गई थी।

चंद बचे बुद्धिजीवी जो जहां तहां यदा कदा विकास की बात करते भी थे तो रहस्यमयी उलझन में ऐसे उलझे दिखते थे कि उनकी बुद्धि की किरणें भी असमंजस के कुहासों में धूमिल नज़र आती रही थी। एक तबका ऐसा भी रहा था जो पैसे का एप्रोच करने वाले की वफादारी का गमछा गले में डाल कर वफ़ादार प्राणी की भाँति हमेशा सौ की स्पीड में रहकर अपने साथ के कार्यकर्ताओं की पकड़ से बाहर रहने की कोशिश में लगा रहता था।

और आख़िरी तबका वैसे चंट होशियार लोगों का दिखा था जो अंत तक सबसे ख़फ़ा ख़फ़ा सा रहता था और जीत के गणित के क़रीब जाते हुए नेता और दल को देखकर अपना फ़ोन तुरत घुमाता था कि उसने ही एक मात्र पूरी ईमानदारी से साइलेंट रहकर जनता को उम्मीदवार की तरफ़ मोड़ा था ।

अर्थात , पूरे सीमांचल में लोक सभा चुनाव के दौरान मुद्दा बिल्कुल गौण रह गए और नेताओं की चापलूसी करते हुए अपनी अपनी दुकानदारी और ठीकेदारी दलाली को अंजाम दिलाने में बरबस लगे रहने वाले तत्व चांदी काटते रहे। न बदलाव की मुहिम को कोई अंजाम मिला और न टूटती दिखी पैरों में पूर्व से पड़ी राजनीतिक दलों की गुलामी की जंजीर।