मोदी का चीन और रूस के साथ संबंध, क्या है सच्चाई?

दुनिया गजब है। जो है, वह दिखती नहीं और जो दिखती है, वह होती नहीं। अमेरिका भारत को चीन के मैन्युफैक्चरिंग विकल्प के तौर पर देख रहा है और चीन अपने साथी के तौर पर। भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान को बनाए रखे और किसी भी विदेशी प्रभाव से बचकर रहे।

मोदी का चीन और रूस के साथ संबंध, क्या है सच्चाई?

फैसल सुल्तान 

मोदी का चीन और रूस के साथ जो संबंध है, वह वास्तव में राष्ट्रवादियों के लिए एक चिंता का विषय है। यदि भारत में कोई वामपंथी सरकार भी होती, तो वह भी शायद इसी प्रकार के रिश्तों की राह पर चलती। आरएसएस की अमेरिका और ब्रिटेन परस्त नीति के मुकाबले, यह नीति किसी भी प्रकार से बेहतर नहीं मानी जा सकती। मोदी और संघ की नीतियों में चीन के प्रति झुकाव एक खतरनाक संकेत है। वे राजनीतिक विमर्श में चीन की आलोचना करते हैं, लेकिन व्यवहार में चीन के साथ खड़े नज़र आते हैं।

मोदी के कार्यकाल में भारत ने उस चीन से सबसे ज्यादा आयात किया है, जिसके सामान के बहिष्कार के अभियान मोदी समर्थक स्वयं चलाया करते थे। चीन हमारे क्षेत्र में घुसा और मोदी सरकार ने इस सच को नकार दिया। अपनी जमीन को वापस लेने की भी कोई कोशिश नहीं की गई। संघ और चीन का रिश्ता बहुत पुराना है। नेहरू ने चीन के साथ दोस्ती का अध्याय 1962 के बाद बंद कर दिया था। जनता पार्टी की सरकार आते ही अटल बिहारी वाजपेयी ने उसी चीन से दोस्ती की पहल शुरू कर दी।

22 फरवरी 1979 को वाजपेयी चीन पहुंचे। संघ और बीजेपी के साथ चीन की कम्युनिष्ट पार्टी के बहुत निकट संबंध हैं। इनके प्रतिनिधिमंडल चीन जाते हैं और वहां की कम्युनिष्ट पार्टी से सीखकर लौटते हैं। दोनों पार्टियों के बीच समझौता भी हुआ है। वहां से भी प्रतिनिधिमंडल यहां आते रहते हैं। वाजपेयी ने दूसरे कार्यकाल में ब्रजेश मिश्रा और दाई बिंगुओ को मिलाकर एक कमिटी बनाई, जो लगातार टास्कफोर्स की तरह काम कर रही थी।

वाजपेयी की मौत पर वेन जियाबाओ ने अफसोस जताया था और मोदी के सरकार में आते ही चीन ने कहा कि मोदी के पास अवसर है कि वे नये वाजपेयी बनकर दिखाएं। आज चीन की चाहत के मुताबिक, पुतिन से मोदी मुलाकात कर रहे हैं, तो सबसे ज्यादा खुश चीन है। यह कहना तो ठीक नहीं होगा कि ये मुलाकात चीन को खुश करने के लिए है, लेकिन जो हो रहा है, उससे चीन को खुशी तो मिली ही है।