बिहार में नीतीश कुमार की राजनीतिक चाल: अमित शाह को क्यों झेलनी पड़ी हार?
बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार ने एक बार फिर अपनी रणनीतिक कुशलता का प्रदर्शन किया है। अमित शाह और भाजपा ने जेडीयू को तोड़ने की साजिश रची, लेकिन नीतीश कुमार और लालू यादव की जोड़ी ने महागठबंधन को मजबूत करते हुए भाजपा की योजना को विफल कर दिया। भाजपा के 38 विधायकों की संख्या में कमी और जेडीयू में विभाजन की कोशिश के बावजूद, महागठबंधन ने अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखी। नीतीश की "प्रगति यात्रा" और महागठबंधन के रणनीतिक प्रयासों ने यह सुनिश्चित किया कि बिहार में भाजपा का राजनीतिक प्रभाव कमजोर हो। 243 विधानसभा सीटों के समीकरण में भाजपा को कोई बढ़त नहीं मिली। राजभवन की भूमिका और राजनीतिक समीकरणों ने भाजपा की रणनीति को और जटिल बना दिया। यह घटनाक्रम बिहार की राजनीति में महागठबंधन की मजबूती और भाजपा की चुनौतियों को स्पष्ट करता है।

फैसल सुल्तान
बिहार की राजनीति हमेशा से ही देशभर में चर्चा का विषय रही है, और इस बार भी ऐसा ही माहौल है। बिहार की ज़मीन पर राजनीतिक घमासान मचा हुआ है। इसी बीच, यह कहा जा रहा है कि गुजरात से आने वाले बीजेपी के "चाणक्य" अमित शाह को बिहार ने एक बार फिर सबक सिखा दिया है।
अमित शाह का मकसद नीतीश कुमार की सरकार को कमजोर करना और बीजेपी का मुख्यमंत्री बनाने का था। लेकिन बिहार की ज़मीन ने उनकी रणनीति को ध्वस्त कर दिया। पटना से दिल्ली तक बीजेपी के नेता सफाई देते नजर आए कि नीतीश कुमार ही उनके मुख्यमंत्री हैं और उनकी ही अगुवाई में चुनाव लड़ेंगे। लेकिन नीतीश कुमार अपनी चाल में आगे निकल गए।
नीतीश कुमार को महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के घटनाक्रम की याद थी, इसलिए उन्होंने अपनी राजनीतिक स्थिति को पहले से मजबूत कर लिया। बिहार विधानसभा में कुल 243 सदस्य हैं, और सरकार बनाने के लिए 122 विधायकों की ज़रूरत होती है। बीजेपी के पास 80 विधायक हैं, जबकि उनके सहयोगी जीतन राम मांझी की पार्टी के पास 4 विधायक हैं। ये मिलकर 84 विधायक बनते हैं।
बीजेपी को अपनी सरकार बनाने के लिए 38 अतिरिक्त विधायकों की जरूरत थी। अमित शाह ने जेडीयू के विधायकों को तोड़ने की पूरी कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हो सके। जेडीयू के 45 विधायकों में से केवल 19 विधायक ही बीजेपी के प्रस्ताव पर सहमत होने के लिए तैयार थे। लेकिन यह संख्या बीजेपी को बहुमत दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं थी।
दूसरी ओर, राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के पास 77 विधायक हैं। कांग्रेस के पास 19, सीपीआई (एमएल) के 11, सीपीएम के 2, और सीपीआई के 2 विधायक हैं। ओवैसी की पार्टी के एकमात्र विधायक भी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर नीतीश का साथ दे सकते हैं। इन सभी को मिलाकर महागठबंधन के पास कुल 112 विधायक हैं, जिन्हें सरकार बनाने के लिए केवल 10 और विधायकों की जरूरत होगी।
नीतीश कुमार ने हाल ही में बिहार की प्रगति यात्रा शुरू की है। वे लोगों से संवाद कर रहे हैं, सरकारी योजनाओं की समीक्षा कर रहे हैं, और महत्वपूर्ण परियोजनाओं का शिलान्यास और उद्घाटन कर रहे हैं। नीतीश का यह कदम यह दर्शाता है कि वे अमित शाह की चुनौती का पूरी तरह सामना करने को तैयार हैं।
बीजेपी का मिशन बिहार में फेल हो चुका है। अमित शाह के बयान और जेडीयू को तोड़ने की रणनीति ने उनकी पार्टी को ही बैकफुट पर ला दिया। पटना से दिल्ली तक सफाई देते हुए बीजेपी के नेता अब यह दावा कर रहे हैं कि नीतीश कुमार उनके मुख्यमंत्री हैं।
बिहार की राजनीति यह दिखाती है कि यहां मुख्यमंत्री बदलने का मतलब हमेशा सरकार का गिरना नहीं होता। बल्कि, यह राजनीतिक जोड़-तोड़ और समीकरणों का खेल है। अमित शाह का मिशन फेल होना यह संदेश देता है कि बिहार की राजनीति में आंकड़ों का खेल ही सबसे अहम है।
यह कहानी बिहार की राजनीति का एक ऐसा चित्रण है जो यह दिखाता है कि जब बात गठबंधन और संख्या की हो, तो बिहार में कोई भी राजनीतिक चाणक्य आसानी से सफल नहीं हो सकता।