भारत की विदेश नीति: शंघाई सहयोग संगठन (SCO) और पाकिस्तान दौरे से भारत की नई कूटनीतिक दिशा

विदेश नीति, शंघाई सहयोग संगठन (SCO) और तालिबान के परिप्रेक्ष्य में भारत के बदलते नीति । भारत की विदेश नीति हाल के वर्षों में जटिलताओं और उतार-चढ़ाव का सामना कर रही है, खासकर पाकिस्तान, अफगानिस्तान और रूस के साथ संबंधों में। शंघाई सहयोग संगठन में भारत की भूमिका पर भी चर्चा की गई है, जहां चीन और रूस का प्रभुत्व है। SCO के माध्यम से भारत ने कूटनीतिक प्रभाव बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन इस संगठन पर चीनी और रूसी प्रभाव ने भारत को हाशिए पर रखा है। इसके अलावा, अफगानिस्तान में तालिबान के प्रभाव और चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का विस्तार भारत के लिए नई कूटनीतिक चुनौतियां प्रस्तुत करता है। विदेश मंत्री जयशंकर का पाकिस्तान दौरा और अचानक बदलती कूटनीतिक चालें भी लेख का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जो भारत के सामने नई चुनौतियों और समीकरणों को रेखांकित करती हैं।

भारत की विदेश नीति: शंघाई सहयोग संगठन (SCO) और पाकिस्तान दौरे से भारत की नई कूटनीतिक दिशा

फैसल सुल्तान

भारत की विदेश नीति हाल के वर्षों में बड़े उतार-चढ़ाव और जटिलताओं का सामना कर रही है। खासकर जब बात पाकिस्तान, अफगानिस्तान और रूस जैसे देशों की हो, तो भारत की कूटनीति न केवल अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रही है, बल्कि क्षेत्रीय और वैश्विक शक्ति-संतुलन में अपनी जगह भी बना रही है। इस लेख में हम इस विषय पर विस्तार से चर्चा करेंगे कि कैसे हाल के घटनाक्रमों ने भारत की विदेश नीति को नई दिशा देने के लिए मजबूर किया है।

 शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की अहमियत

शंघाई सहयोग संगठन (SCO) एक ऐसा अंतर्राष्ट्रीय संगठन है जिसका प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है। यह संगठन 2001 में शंघाई फाइव के रूप में शुरू हुआ, जिसमें रूस, चीन और मध्य एशियाई देशों ने भाग लिया। आज यह संगठन रूस और चीन की कूटनीतिक ताकत को बढ़ाने का एक महत्वपूर्ण मंच बन गया है। SCO का उद्देश्य सुरक्षा, आर्थिक और सांस्कृतिक सहयोग को बढ़ावा देना है। इसकी सदस्यता में भारत और पाकिस्तान 2017 में शामिल हुए थे, और हाल ही में ईरान भी इसका सदस्य बना है।

हालांकि, भारत का इस संगठन में हमेशा एक खास भूमिका रही है। भारत ने संगठन में शामिल होकर अपने कूटनीतिक प्रभाव को बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन चीन और रूस का प्रभुत्व इस संगठन पर हावी है। SCO की बैठकें अक्सर अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद, और क्षेत्रीय स्थिरता पर ध्यान केंद्रित करती हैं, और भारत को इन मुद्दों पर सक्रिय रूप से अपनी स्थिति स्पष्ट करनी होती है।

शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन (एससीओ) का इस्लामाबाद में 15-16 अक्टूबर को होने वाला समिट वैश्विक दृष्टिकोण से बेहद महत्वपूर्ण हो गया है। यह समिट ना सिर्फ यूनाइटेड नेशंस बल्कि नेटो देशों, अमेरिका, इजराइल और पश्चिमी देशों की ताकत और संप्रभुता के लिए भी एक चुनौती माना जा रहा है। एससीओ का यह सम्मेलन दुनिया के विभिन्न भागों में विशेष रूप से चीन और रूस के प्रभुत्व को रेखांकित करता है, जो इसे अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक अहम स्थिति प्रदान कर रहा है।

भारत, हालांकि, इस संगठन से धीरे-धीरे अलग होता गया, क्योंकि संगठन पर चीन और रूस का मुख्य नियंत्रण है, और इसकी आधिकारिक भाषाएं चीनी और रूसी हैं, जिसमें अंग्रेजी और हिंदी को कोई प्रमुखता नहीं दी गई है। एससीओ की शुरुआत "शंघाई फाइव" के रूप में हुई थी, जिसमें शुरू में चीन, रूस और मध्य एशियाई देशों जैसे कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, और ताजिकिस्तान शामिल थे। बाद में, इसका नाम बदलकर शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन कर दिया गया।

हालांकि, भारत का इस संगठन में प्रवेश हुआ, लेकिन चीन और रूस की बढ़ती भूमिका और प्रभुत्व के कारण भारत का सक्रिय रूप से भाग लेना कम हो गया। अब, इस्लामाबाद में होने वाला समिट विश्व स्तर पर इस संगठन की महत्वता को और बढ़ा सकता है, और इसके परिणामस्वरूप अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भू-राजनीतिक समीकरणों में बदलाव आ सकता है।

विदेश मंत्री जयशंकर का पाकिस्तान दौरा: बदली हुई स्थिति?

हाल ही में, भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर का पाकिस्तान दौरा चर्चा का विषय बन गया। यह दौरा ऐसे समय पर हुआ जब भारत और पाकिस्तान के बीच संबंध तनावपूर्ण थे, खासकर आतंकवाद और पीओके जैसे मुद्दों पर। जयशंकर के पाकिस्तान जाने की खबर आते ही भारतीय मीडिया में हलचल मच गई। लोग आश्चर्यचकित थे कि चार दिन पहले तक जो पाकिस्तान के खिलाफ सख्त बयान दे रहे थे, वो अब वहां कैसे जा सकते हैं।

जयशंकर का पाकिस्तान दौरा इस्लामाबाद में होने वाले SCO समिट में भाग लेने के लिए था, जो 15-16 अक्टूबर को आयोजित होने वाला था। इस समिट की अहमियत इसलिए भी बढ़ गई थी क्योंकि इसमें न केवल भारत और पाकिस्तान शामिल हो रहे थे, बल्कि अफगानिस्तान भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था। सवाल यह है कि अचानक भारत की कूटनीतिक भाषा और चाल कैसे बदल गई? क्या इसके पीछे कोई बड़ी रणनीतिक योजना थी या यह बस एक कूटनीतिक बाध्यता थी?

कुछ दिन पहले तक जयशंकर पाकिस्तान के खिलाफ तीखे बयान दे रहे थे, कहते थे कि जब तक आतंकवाद खत्म नहीं होता, तब तक पाकिस्तान से कोई संवाद संभव नहीं है। उन्होंने साफ कहा था कि हम पाकिस्तान में कदम नहीं रखेंगे। पर अचानक ऐसा क्या हो गया कि उनके बोल, चाल और दिशा तीनों बदल गए, और उन्होंने इस्लामाबाद की फ्लाइट बुक करवा ली?

पिछले कुछ महीनों की घटनाओं पर नज़र डालें तो रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी पाकिस्तान के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाते हुए पीओके (पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर) पर दावा करते हुए कह रहे थे कि किसी भी समय पीओके भारत का हिस्सा बन सकता है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी अपने भाषणों में अक्सर पाकिस्तान का जिक्र करते रहते हैं। हरियाणा और उत्तर प्रदेश की रैलियों में उनका कहना रहता है कि अगर किसी को भारत पसंद नहीं है तो वह पाकिस्तान चला जाए, और पीओके तो हम लेकर रहेंगे।

गृह मंत्री अमित शाह का भी रुख पाकिस्तान और बांग्लादेश के प्रति सख्त रहता है। बांग्लादेशी घुसपैठियों को लेकर उन्होंने कड़ा रुख अपनाया है, और पाकिस्तान को तो हमेशा ही एक गरीब, कर्ज़ में डूबा देश बताया। वे कहते हैं कि हम कभी पाकिस्तान नहीं जाएंगे, क्योंकि वह हमारा दुश्मन है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कश्मीर चुनाव से दो दिन पहले अपने भाषण में पाकिस्तान पर कड़ा संदेश देते हुए कहते हैं कि "यह नया भारत है, जो दुश्मन के घर में घुसकर मारता है।"

लेकिन अब सवाल यह उठता है कि ऐसा क्या बदल गया कि अचानक जयशंकर को पाकिस्तान जाना पड़ा? कल तक तो पाकिस्तान को लेकर सख्त बयानों का दौर चल रहा था, लेकिन आज गोदी मीडिया में सुर बदल गए हैं। अब कहा जा रहा है कि जयशंकर का पाकिस्तान जाना रिश्तों में जमी बर्फ को पिघलाएगा, और इसमें नई ऊर्जा का संचार होगा।

सच तो यह है कि जयशंकर वहां किसी खास वजह से जा रहे हैं, और उनके पीछे जो आग लगी है, वह उन्हें और न जाने कितनों को प्रभावित कर सकती है।

पाकिस्तान और भारत के बीच संबंध

भारत और पाकिस्तान के संबंध हमेशा से तनावपूर्ण रहे हैं, खासकर जम्मू-कश्मीर और आतंकवाद के मुद्दों पर। भारतीय नेता, जैसे रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, पाकिस्तान को लेकर कड़े बयान देते रहे हैं। राजनाथ सिंह ने हाल ही में कहा था कि "पीओके हमारा है और उसे हम हासिल करेंगे।" वहीं, योगी आदित्यनाथ ने अपने भाषणों में पाकिस्तान पर हमला बोलते हुए कहा था, "जो लोग भारत से नफरत करते हैं, उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए।"

इन बयानों के बीच जयशंकर का पाकिस्तान दौरा कई सवाल खड़े करता है। जब भारत के नेताओं ने बार-बार कहा है कि जब तक पाकिस्तान आतंकवाद का समर्थन करता है, तब तक संवाद संभव नहीं है, तो ऐसे में अचानक कूटनीतिक संबंधों में यह बदलाव क्यों आया?

चीन और रूस का प्रभुत्व

SCO में चीन और रूस का प्रभुत्व बेहद महत्वपूर्ण है। चीन इस संगठन का मुख्य ताकतवर देश है, और इसकी आधिकारिक भाषाएं चीनी और रूसी हैं, जो यह दर्शाता है कि यह संगठन पश्चिमी देशों के मुकाबले अपनी अलग पहचान बना रहा है। इसके अलावा, चीन ने भारत के लगभग सभी पड़ोसी देशों को इस संगठन में शामिल कर लिया है, जैसे कि नेपाल, श्रीलंका, मालदीव और म्यांमार। भारत के लिए यह एक चुनौती बन गई है क्योंकि चीन ने अपने पड़ोसियों के साथ अपने संबंध मजबूत कर लिए हैं, जबकि भारत को इस क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत करनी है।

अफगानिस्तान और तालिबान का बढ़ता प्रभाव

SCO समिट की एक और बड़ी चर्चा का विषय अफगानिस्तान और तालिबान का प्रभाव है। 2021 में तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जे के बाद से, यह देश एक बार फिर से अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति का केंद्र बन गया है। रूस ने हाल ही में घोषणा की है कि वह तालिबान को आतंकवादी संगठनों की सूची से हटाने जा रहा है। यह एक बड़ा बदलाव है, क्योंकि 2003 में रूस ने तालिबान को आतंकवादी संगठन घोषित किया था। अब, रूस तालिबान के साथ अपने संबंधों को सामान्य करने की दिशा में कदम बढ़ा रहा है, और यह निर्णय SCO समिट के ठीक पहले लिया गया है।

चीन और अफगानिस्तान के रिश्ते

चीन ने भी तालिबान के साथ अपने संबंध मजबूत किए हैं, खासकर चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (CPEC) के विस्तार के माध्यम से। CPEC अब पाकिस्तान से अफगानिस्तान तक फैल रहा है, और यह चीन के आर्थिक और रणनीतिक हितों के लिए महत्वपूर्ण है। भारत इस स्थिति से चिंतित है, क्योंकि अफगानिस्तान में चीन का प्रभाव बढ़ रहा है। हालांकि, भारत की काबुल में एंबेसी अभी भी काम कर रही है, लेकिन भारत ने अब तक तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है।

तालिबान के साथ रूस के संबंध 

रूस का तालिबान के साथ संबंध सामान्य करने का निर्णय न केवल SCO के संदर्भ में बल्कि वैश्विक कूटनीति में भी एक बड़ा बदलाव है। रूस ने तालिबान को आतंकवादी संगठनों की सूची से हटाने का फैसला लिया है, और यह संकेत दिया है कि वह अफगानिस्तान में तालिबान के साथ अपने कूटनीतिक संबंधों को मजबूत करेगा। हालांकि, तालिबान सरकार को अभी तक किसी भी बड़े देश ने मान्यता नहीं दी है, लेकिन रूस का यह कदम एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक संकेत है।

भारत की कूटनीति और आगे की चुनौतियाँ

भारत की विदेश नीति को अब नए सिरे से विचार करना होगा। चीन और रूस का प्रभाव SCO में लगातार बढ़ रहा है, और भारत को इस मंच पर अपनी स्थिति बनाए रखने के लिए कड़े कूटनीतिक कदम उठाने होंगे। अफगानिस्तान में तालिबान की वापसी ने इस क्षेत्र में नई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं, और भारत को अपने पड़ोसियों के साथ संतुलित संबंध बनाने होंगे। साथ ही, पाकिस्तान के साथ संवाद की दिशा में भी एक स्पष्ट नीति अपनानी होगी, जो आतंकवाद के मुद्दे को हल किए बिना संभव नहीं हो सकती।

अचानक ऐसा क्या हुआ कि मोदी जी ने तुरंत जयशंकर को इस्लामाबाद भेजने का फैसला किया? ऐसा लग रहा है जैसे कोई बड़ी आपात स्थिति आ गई हो। उन्हें तुरंत फ्लाइट पकड़ने और इस्लामाबाद जाने का आदेश मिला। दरअसल, इस्लामाबाद में कुछ गुप्त बैक-डोर मीटिंग्स होने जा रही हैं, जहां रूस, चीन, और ईरान के साथ मिलकर अफगानिस्तान को पुनर्स्थापित करने की योजना बनाई जा रही है। इसके साथ ही, मालदीव, श्रीलंका, और नेपाल के साथ भी कुछ चर्चाएं होंगी। यानी कि अब नेपाल के केपी शर्मा ओली, श्रीलंका के नए राष्ट्रपति अनुरा कुमारा दिसानायके, और मालदीव के मोहम्मद मोजू भी इस पूरे समीकरण में शामिल हो गए हैं।

इस्लामाबाद में होने वाली इन बैठकों से नए अंतरराष्ट्रीय समीकरण उभरने की संभावना है, खासकर अमेरिका और नेटो देशों के खिलाफ। इसी कारण जयशंकर को अचानक पाकिस्तान भेजा जा रहा है। सवाल यह है कि यह फैसला इतनी जल्दी क्यों लिया गया, जबकि भारत धीरे-धीरे एससीओ से अलग होता जा रहा था और यहां तक कि यह विचार भी चल रहा था कि भारत को इस संगठन से अलग हो जाना चाहिए। अचानक भारत को एससीओ में फिर से सक्रिय भूमिका निभाने के लिए क्यों कहा गया?

एक और दिलचस्प खबर यह है कि हो सकता है अमेरिका ने भारत से कहा हो कि जयशंकर को इस्लामाबाद भेजा जाए। वैसे तो इस्लामाबाद में अमेरिका के राजदूत और सीआईए के जासूस पहले से मौजूद हैं, जो हर मीटिंग में शामिल होंगे। खासकर उस बैठक में, जहां रूस, चीन और ईरान इजराइल के खिलाफ कुछ योजना बनाने वाले हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि अमेरिका को अपने जासूसों पर पूरा भरोसा नहीं है, इसलिए उसने भारत से कहा कि जयशंकर वहां जाकर सीधे रूस, चीन और ईरान के विदेश मंत्रियों से बात करें और पता लगाएं कि पर्दे के पीछे क्या चल रहा है। 

कूटनीति की दुनिया में जो कुछ भी होता है, वह बहुत जटिल और गुप्त होता है, और इस बार भी ऐसा ही कुछ देखने को मिल रहा है।

निष्कर्ष: भारत की विदेश नीति में बदलाव और नए अवसर

भारत की विदेश नीति में हाल के घटनाक्रमों ने यह साफ कर दिया है कि अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति में स्थिरता कोई स्थायी चीज नहीं है। SCO जैसे मंचों पर भारत को न केवल अपनी स्थिति मजबूत करनी होगी, बल्कि क्षेत्रीय और वैश्विक शक्ति-संतुलन में अपनी भूमिका को भी स्पष्ट करना होगा। पाकिस्तान और तालिबान जैसे मुद्दों पर कूटनीतिक समझ और सामरिक संतुलन भारत के लिए आने वाले समय में सबसे बड़ी चुनौती होगी।

मुझे अक्सर लगता है कि भारत का जो झुकाव अमेरिका की ओर है, वह उसे ना यहां का रहने देगा और ना वहां का। इस समय भारत दो नावों पर सवार है—वह पुतिन का भी करीबी बनना चाहता है और अमेरिका का भी। यह बात न तो अमेरिका से छिपी है, न ही पुतिन से। अमेरिका जानता है कि भारत अभी रूस के साथ खड़ा है, लेकिन वक्त आने पर वह उसका साथ छोड़ सकता है और अमेरिका की ओर झुक सकता है। इसी तरह, पुतिन को भी इस बात का अंदेशा है कि भारत किसी भी समय रूस से किनारा कर सकता है। दोनों देशों के मन में यह सवाल है कि भारत वफादारी किसके साथ निभाएगा।

ये सारी समस्याएं अब खुलकर सामने आ रही हैं, खासकर एससीओ समिट को लेकर। भारत ने इस समिट को पहले कोई खास तवज्जो नहीं दी थी, क्योंकि यह चीन के नियंत्रण में आ गया था। लेकिन अब जब यह सारे घटनाक्रम उभर कर सामने आ रहे हैं, तो अमेरिका ने दबाव डाला कि जल्दी से जाओ और देखो वहां क्या चल रहा है—रूस, चीन, ईरान और बाकी देश क्या कर रहे हैं। ऐसा लगता है कि अमेरिका भारत से जानकारी जुटवाना चाहता है कि इस्लामाबाद में क्या बातचीत होने जा रही है। कुछ महीने पहले भी ऐसी ही स्थिति बनी थी, जब अचानक जयशंकर रातों-रात तेहरान चले गए थे। पर्दे के पीछे क्या बातचीत हुई, यह पता नहीं चला, लेकिन अमेरिका ने कहा था कि जयशंकर को भेजो क्योंकि उनके ईरान से अच्छे संबंध हैं। इसी तरह, कुछ हफ्ते पहले अमेरिका का एक प्रतिनिधिमंडल भी गुप्त रूप से ओमान से तेहरान गया था और वहां कुछ घंटे रहकर बातचीत करके वापस चला गया था। यह सब संकेत देते हैं कि बैकडोर चैनल हमेशा से चलते रहे हैं।

अब इस्लामाबाद में एससीओ समिट में रूस, चीन, ईरान, अफगानिस्तान और भारत सब मौजूद होंगे, और भारत ने अचानक जयशंकर को वहां भेजने का फैसला किया है। इस पर मीडिया की हेडलाइन भी बदल गई है—अब सवाल उठ रहे हैं कि क्या भारत और पाकिस्तान के संबंधों में सुधार आएगा? क्या जमी हुई बर्फ पिघलेगी? जयशंकर पाकिस्तान जा रहे हैं बातचीत करने के लिए। यह देखना दिलचस्प है कि कल तक पाकिस्तान पर हमला करने वाले लोग अब पाकिस्तान से फिर बातचीत की उम्मीद कर रहे हैं। शायद मोदी जी ने मजाक में कहा हो कि "मैंने तो बिरयानी खा ली है, अब तुम भी खा आओ।"

असल में, यह सब भारत की खुद को अंतरराष्ट्रीय मंच पर अलग-थलग पड़ने से बचाने की रणनीति का हिस्सा है। आज के समय में जब संयुक्त राष्ट्र सही से काम नहीं कर पा रहा है, इस्लामाबाद में होने वाला एससीओ समिट बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। भारत ने भी इसकी अहमियत को समझ लिया है, और संभव है कि अमेरिका ने भी भारत को इसे लेकर सक्रिय होने के लिए प्रेरित किया हो, ताकि जयशंकर वहां जाकर देख सकें कि पर्दे के पीछे क्या चल रहा है।