नरेंद्र मोदी सरकार के सामने अमेरिका द्वारा रिजीम चेंज की चुनौती : वक्फ बोर्ड बिल और अमेरिकी हस्तक्षेप

लेख में नरेंद्र मोदी सरकार के सामने आने वाले अंतरराष्ट्रीय दबाव और चुनावी विवादों पर चर्चा की गई है। तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद, मोदी सरकार को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जिनमें वक्फ बोर्ड बिल और अमेरिकी हस्तक्षेप प्रमुख हैं। चुनाव आयोग के विवादास्पद रवैये और भाजपा की आरएसएस समर्थित नीतियों के कारण यह चुनाव काफी चर्चित रहा। इस बार भाजपा अकेले चुनाव जीतने में असमर्थ रही और टीडीपी तथा जेडीयू जैसे बड़े दलों का समर्थन लेने के लिए मजबूर हुई। चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार का समर्थन सरकार के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन हाल की घटनाओं, विशेष रूप से चंद्रबाबू नायडू की अमेरिकी काउंसलेट जनरल से मुलाकात ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। वक्फ बोर्ड संशोधन बिल भी विवाद का विषय बना हुआ है, जिसे लेकर अमेरिकी प्रतिनिधियों ने नायडू को मोदी सरकार का समर्थन न करने की सलाह दी। इससे भारत की राजनीति में अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप और मोदी सरकार की स्थिरता पर गंभीर सवाल उठे हैं।

नरेंद्र मोदी सरकार के सामने अमेरिका द्वारा रिजीम चेंज की चुनौती : वक्फ बोर्ड बिल और अमेरिकी हस्तक्षेप

फैसल सुल्तान

  1. नरेंद्र मोदी सरकार पर अंतरराष्ट्रीय दबाव: तीसरी बार सत्ता में आने की चुनौती
  2. वक्फ बोर्ड बिल विवाद: मोदी सरकार और सहयोगी दलों की भूमिका
  3. चुनावी विवाद और वैश्विक चर्चा: मोदी सरकार की स्थिरता पर सवाल
  4. चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार: मोदी सरकार के अहम सहयोगी
  5. भाजपा की चुनावी जीत और अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप की चिंताएं

भारत की राजनीति और वैश्विक संबंधों में हाल के वर्षों में कई अहम बदलाव हुए हैं। नरेंद्र मोदी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली, जो कुछ के लिए अप्रत्याशित थी। इस चुनाव में इलेक्शन कमिशन पर पक्षपात के आरोप लगे, जिससे भाजपा और आरएसएस की नीतियों के मुताबिक नरेंद्र मोदी को जीत दिलाने का आरोप लगा। यह चुनाव न केवल भारत में विवादस्पद साबित हुआ, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी इसकी चर्चा हुई।

मोदी सरकार को सत्ता में आए दो महीने से अधिक समय बीत चुका है, और सरकार कई चुनौतियों का सामना कर रही है। इस बार भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अकेले दम पर बहुमत नहीं जुटा पाई, जिससे उन्हें अन्य घटक दलों का समर्थन लेना पड़ा। प्रमुख राजनीतिक सहयोगियों में तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के चंद्रबाबू नायडू और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के नीतीश कुमार जैसे बड़े नाम शामिल हैं। इन नेताओं का समर्थन मोदी सरकार के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है, लेकिन हाल के घटनाक्रमों ने सरकार के स्थायित्व पर नए सवाल खड़े कर दिए हैं। खासकर, अंतरराष्ट्रीय दबाव और वक्फ बोर्ड बिल जैसे विवादास्पद मुद्दों ने सरकार की स्थिति को और पेचीदा बना दिया है।

मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक अंतरराष्ट्रीय दबाव और सहयोगी दलों के समर्थन को बनाए रखना है।

 चंद्रबाबू नायडू की विवादास्पद मुलाकात

एक रूसी समाचार एजेंसी, स्पूतनिक, ने हाल ही में एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें यह दावा किया गया कि चंद्रबाबू नायडू, जो टीडीपी प्रमुख और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, ने अमेरिकी काउंसलेट जनरल जेनिफर से मुलाकात की। इस मुलाकात ने भारतीय राजनीति में हड़कंप मचा दिया, क्योंकि इससे पहले असदुद्दीन ओवैसी और अन्य नेताओं की भी अमेरिकी प्रतिनिधियों से मुलाकात हो चुकी थी। इन मुलाकातों का प्रमुख मुद्दा भारत की विदेश नीति, विशेष रूप से बांग्लादेश के साथ संबंधों पर आधारित था।

ओवैसी ने बांग्लादेश के मुद्दे पर भारत सरकार की आलोचना की, यह दावा करते हुए कि वर्तमान सरकार बांग्लादेश की जनता का साथ नहीं दे रही है, बल्कि शेख हसीना सरकार का समर्थन कर रही है। उनके इस बयान से मोदी सरकार के प्रति असंतोष बढ़ा, और अमेरिकी काउंसलेट की भूमिका पर सवाल उठने लगे।

 वफ बोर्ड बिल पर विवाद और अमेरिकी दबाव

इस पूरे घटनाक्रम के बीच, वफ बोर्ड संशोधन बिल को लेकर भी चर्चा हो रही है। यह बिल भारत में कई राजनैतिक और धार्मिक मुद्दों का केंद्र बन गया है, और यह बताया जा रहा है कि अमेरिकी प्रतिनिधियों ने चंद्रबाबू नायडू से अपील की कि वे इस बिल पर मोदी सरकार का समर्थन न करें। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि अगर नायडू इस बिल का समर्थन करते हैं, तो उनके मुस्लिम वोट बैंक को नुकसान पहुंच सकता है तथा भारत में हिन्दू-मुस्लिम एकता पर प्रभाव पड़ सकता है जिससे बंगदेश वाली स्तिथि भात में भी उत्पन्न हो सकती है।  भाजपा ने इस बिल के माध्यम से वक्फ बोर्ड के अधिकारों को सीमित करने और सरकारी निगरानी को बढ़ाने का प्रस्ताव किया। हालांकि, यह बिल पारित नहीं हो सका और सिलेक्ट कमेटी के पास चला गया, जिससे भाजपा को राजनीतिक शर्मिंदगी उठानी पड़ी। विपक्षी दलों ने इसे विवादास्पद बताया और इसे एक समुदाय विशेष के खिलाफ कदम के रूप में देखा। इस बिल के पीछे भाजपा की रणनीति सहयोगी दलों की प्रतिक्रिया का परीक्षण करना था। इस घटना ने भारतीय राजनीति में यह स्पष्ट किया कि बिल और विधेयक केवल कानूनी मसले नहीं बल्कि राजनीतिक खेल का हिस्सा भी होते हैं।

अमेरिका की इस रणनीति का मकसद केवल भारत के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना नहीं है, बल्कि मोदी सरकार को कमजोर करने का भी है। अमेरिका नहीं चाहता कि भारत की कोई मजबूत सरकार रहे, और इसका प्रमाण यह है कि जब भी भारत में कोई सरकार अपने पैरों पर खड़ी होती है, तो पश्चिमी देश उसे गिराने की कोशिश करते हैं।

 अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

यह पहला मौका नहीं है जब अमेरिका या अन्य पश्चिमी देशों ने भारत की राजनीति में हस्तक्षेप करने की कोशिश की है। इंदिरा गांधी के शासनकाल में भी ऐसी ही कोशिशें की गई थीं। 1970 के दशक में, जब इंदिरा गांधी की सरकार मजबूत स्थिति में थी, तब भी अमेरिका ने भारत को अस्थिर करने के कई प्रयास किए थे। पश्चिमी देशों को एक स्वतंत्र और शक्तिशाली भारत कभी रास नहीं आया, क्योंकि इससे उनके वैश्विक दबदबे पर असर पड़ता है।

इसी प्रकार, वर्तमान में नरेंद्र मोदी सरकार ने भी कई कड़े फैसले लिए हैं, जिनसे भारत की आत्मनिर्भरता और विदेश नीति को मजबूती मिली है। विशेष रूप से, भारत ने अपने रक्षा उपकरणों का निर्माण शुरू कर दिया है और अब वह 53,000 करोड़ रुपये का रक्षा निर्यात कर रहा है। यह निर्णय न केवल भारत को आत्मनिर्भर बना रहा है, बल्कि विदेशी रक्षा लॉबी को भी चुनौती दे रहा है।

 फार्मा और रक्षा लॉबी की भूमिका

वर्तमान वैश्विक राजनीति में फार्मा और रक्षा लॉबी का बड़ा प्रभाव है। इन लॉबी का उद्देश्य अपने व्यवसायिक हितों को संरक्षित करना होता है, और इसके लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। भारत की फार्मा इंडस्ट्री भी तेजी से बढ़ रही है, और इसने अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को एक चुनौती दी है। इसके अलावा, भारत अब अपने देश में ही रक्षा उपकरणों का उत्पादन कर रहा है, जिससे विदेशों से आने वाले रक्षा उपकरणों की मांग कम हो रही है।

यह वही स्थिति है जो अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों को परेशान कर रही है। यही कारण है कि वे भारत की सरकार को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि वे अपने हितों की रक्षा कर सकें।

 बांग्लादेश नीति पर असदुद्दीन ओवैसी का बयान

असदुद्दीन ओवैसी का बांग्लादेश के संबंध में दिया गया बयान भी मोदी सरकार के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। ओवैसी ने भारत की बांग्लादेश नीति पर सवाल उठाते हुए कहा कि भारत को शेख हसीना के बजाय बांग्लादेश की जनता का समर्थन करना चाहिए था। ओवैसी का यह बयान भारतीय विदेश नीति के खिलाफ एक बड़ा आरोप है और इससे भारत और बांग्लादेश के संबंधों में दरार पैदा हो सकती है।

 चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार की भूमिका

चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार दोनों ही महत्वपूर्ण क्षेत्रीय नेता हैं, और मोदी सरकार के लिए इनका समर्थन महत्त्वपूर्ण है। हालांकि, हालिया घटनाओं से यह स्पष्ट हो रहा है कि अमेरिका इन नेताओं को मोदी सरकार के खिलाफ भड़काने की कोशिश कर रहा है। अमेरिकी प्रतिनिधियों ने नायडू से कहा कि वे वफ बोर्ड संशोधन बिल पर सरकार का समर्थन न करें, और यहां तक कि मोदी सरकार से समर्थन वापस लेने की भी अपील की गई। क्युकी इस तथ्य के कारण कि इसके माध्यम से केवल मुसलमानों की वक्फ संपत्तियों पर नियंत्रण कड़ा किया जा रहा था। आलोचकों ने सवाल उठाया कि सिख, जैन, क्रिश्चन और हिन्दू समुदायों के धार्मिक स्थानों पर क्यों नहीं इसी तरह के कानून लाए जा रहे हैं। यह सवाल भाजपा के लिए एक गंभीर चुनौती साबित हुआ, क्योंकि इसे एक समुदाय विशेष के खिलाफ पक्षपाती कदम के रूप में देखा गया।

 भारत की स्वतंत्र विदेश नीति

यहां सवाल यह उठता है कि आखिर अमेरिका कौन होता है यह तय करने वाला कि भारत की सरकार क्या नीतियां बनाएगी और किस देश का समर्थन करेगी। भारत की विदेश नीति हमेशा स्वतंत्र रही है, और देश ने अपने राष्ट्रीय हितों के आधार पर निर्णय लिए हैं। चाहे वह बांग्लादेश का मामला हो या फिर किसी अन्य देश के साथ संबंध, भारत ने हमेशा अपने सिद्धांतों पर चलते हुए फैसले किए हैं।

 निष्कर्ष

वर्तमान स्थिति में मोदी सरकार के सामने कई चुनौतियां हैं, जिनमें से सबसे बड़ी अंतरराष्ट्रीय दबाव है। अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश नहीं चाहते कि भारत में एक मजबूत और स्थिर सरकार रहे, क्योंकि इससे उनके हितों को नुकसान हो सकता है। हालांकि, यह जरूरी है कि भारत अपनी स्वतंत्र विदेश नीति और आंतरिक नीतियों को बनाए रखे, ताकि वह एक वैश्विक महाशक्ति बन सके।

भारत की राजनीति में अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप को रोकने के लिए, सरकार को मजबूत और निर्णायक कदम उठाने होंगे। चाहे वह वफ बोर्ड संशोधन बिल हो या फिर बांग्लादेश के साथ संबंध, भारत को अपने राष्ट्रीय हितों के आधार पर निर्णय लेना होगा, न कि बाहरी दबाव के कारण।