आरिफ मोहम्मद खान: बिहार के नए राज्यपाल की जीवन यात्रा और उनकी राजनीति

आरिफ मोहम्मद खान, जिन्हें हाल ही में बिहार का नया राज्यपाल नियुक्त किया गया है, का राजनीतिक जीवन अनुभव और विवादों से भरा रहा है। उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले से ताल्लुक रखने वाले खान ने 26 वर्ष की उम्र में राजनीति में कदम रखा और विभिन्न दलों जैसे कांग्रेस, जनता दल, बसपा, और भाजपा का हिस्सा बने। 1986 में शाह बानो केस पर कांग्रेस के रुख से असहमति जताते हुए उन्होंने मंत्री पद छोड़ दिया, लेकिन बाद में भाजपा के साथ जुड़कर तीन तलाक के खिलाफ अभियान में अहम भूमिका निभाई। हालांकि, उनकी राजनीतिक अस्थिरता, वैचारिक लचीलेपन और सत्ता के साथ समझौतों को लेकर सवाल उठते रहे हैं। राम मंदिर दर्शन और बिल्किस बानो मामले पर उनकी चुप्पी ने उनकी निष्पक्षता पर संदेह पैदा किया। बिहार के राज्यपाल के रूप में, उनसे निष्पक्षता और संवैधानिक दायित्वों को निभाने की अपेक्षा है, लेकिन उनका अतीत इस पर शंका उत्पन्न करता है।

आरिफ मोहम्मद खान: बिहार के नए राज्यपाल की जीवन यात्रा और उनकी राजनीति

फैसल सुल्तान

भारत के संवैधानिक ढांचे में राज्यपाल का पद राज्य की प्रशासनिक और संवैधानिक व्यवस्था के संचालन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हाल ही में, केरल के राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान को बिहार का नया राज्यपाल नियुक्त किया गया। यह निर्णय कई मायनों में चर्चा का विषय रहा, विशेष रूप से उनके राजनीतिक जीवन, विवादों और उनके व्यक्तित्व के कारण। इस लेख में, हम आरिफ मोहम्मद खान की पूरी राजनीतिक यात्रा, उनके विवादित फैसले और उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं का विस्तृत विश्लेषण करेंगे।

आरिफ मोहम्मद खान का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

आरिफ मोहम्मद खान का जन्म 1951 में उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के स्याना तहसील के गांव बरवाला में हुआ था। उनका परिवार बाराबस्ती क्षेत्र से ताल्लुक रखता था, जो 12 गांवों का एक समूह है। उनका प्रारंभिक जीवन इस क्षेत्र में ही बीता। उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा दिल्ली के जामिया मिलिया स्कूल से पूरी की और आगे की पढ़ाई अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) और लखनऊ के शिया कॉलेज से की। शिक्षा के दौरान ही उन्होंने राजनीति में रुचि लेना शुरू कर दिया था।

राजनीतिक जीवन की शुरुआत

आरिफ मोहम्मद खान ने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत भारतीय क्रांति दल के टिकट पर विधानसभा चुनाव लड़कर की, लेकिन पहली बार में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। फिर भी, उनका राजनीतिक सफर रुका नहीं। वर्ष 1977 में, महज 26 वर्ष की उम्र में, उन्होंने जनता पार्टी के टिकट पर स्याना विधानसभा क्षेत्र से जीत हासिल की और विधायक बने।

इसके बाद उन्होंने कांग्रेस पार्टी का दामन थामा और 1980 में कानपुर से तथा 1984 में बहराइच से लोकसभा चुनाव जीतकर सांसद बने। लेकिन उनकी राजनीतिक यात्रा यहीं नहीं रुकी, बल्कि यह आगे कई मोड़ों से होकर गुजरी।

शाह बानो केस और कांग्रेस से इस्तीफा

आरिफ मोहम्मद खान के राजनीतिक जीवन का सबसे विवादास्पद अध्याय 1986 में शाह बानो केस से जुड़ा है। इस मामले में, उन्होंने मुस्लिम पर्सनल लॉ पर कांग्रेस सरकार के रुख का विरोध किया। राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटते हुए एक नया कानून पारित किया था। इसे मुस्लिम वोट बैंक को साधने की राजनीति के रूप में देखा गया। आरिफ मोहम्मद खान ने इस फैसले का विरोध करते हुए कांग्रेस और मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।

यह घटना उनके राजनीतिक जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ थी। इस इस्तीफे के बाद उन्होंने जनता दल का दामन थामा और 1989 में एक बार फिर से सांसद चुने गए। जनता दल सरकार में उन्होंने नागरिक उड्डयन मंत्री के रूप में कार्य किया।

विभिन्न दलों में राजनीति और अस्थिरता

आरिफ मोहम्मद खान की राजनीतिक यात्रा अस्थिर रही है। उन्होंने समय-समय पर विभिन्न राजनीतिक दलों का दामन थामा:

  1. बसपा: 1998 में बहुजन समाज पार्टी (BSP) के टिकट पर चुनाव जीतकर संसद पहुंचे।
  2. भाजपा: 2004 में भारतीय जनता पार्टी (BJP) में शामिल हुए। उन्होंने कैसरगंज सीट से चुनाव लड़ा लेकिन हार गए।
  3. भाजपा से अलगाव: 2007 में भाजपा द्वारा अपेक्षित तवज्जो न मिलने के कारण उन्होंने पार्टी छोड़ दी।

उनकी अस्थिर राजनीतिक यात्रा उनकी व्यक्तित्वगत और वैचारिक दृढ़ता पर सवाल खड़े करती है।

तीन तलाक के खिलाफ अभियान

वर्ष 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद, आरिफ मोहम्मद खान ने तीन तलाक के खिलाफ कानून बनाने की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके विचारों को भाजपा के एजेंडे के साथ संरेखित पाया गया, जिसने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की वकालत की। हालांकि, उनके आलोचकों का कहना है कि उनका यह कदम अधिकतर राजनीतिक फायदे के लिए था।

विवादों में घिरे आरिफ मोहम्मद खान

आरिफ मोहम्मद खान का राजनीतिक और सामाजिक जीवन विवादों से अछूता नहीं रहा है।

  1. शाह बानो केस बनाम बिल्किस बानो मामला

आरिफ मोहम्मद खान ने शाह बानो केस में अपनी नैतिकता और साहस का परिचय देते हुए इस्तीफा दिया था, लेकिन बिल्किस बानो मामले में उनकी चुप्पी पर सवाल उठाए गए हैं। पत्रकार आरफा खानम शेरवानी ने उन्हें "राजनीतिक कायरता" का प्रतीक बताया, जो सत्ता के दबाव में अपनी आवाज खो देते हैं।

  1. रामलला के दर्शन और हिंदुत्व की राजनीति

केरल के राज्यपाल के तौर पर, रामलला मंदिर के दर्शन करने और इसे सार्वजनिक रूप से साझा करने के उनके कदम को कई लोग भाजपा की हिंदुत्व राजनीति का समर्थन मानते हैं।

आरिफ मोहम्मद खान का नकारात्मक पक्ष

आरिफ मोहम्मद खान का व्यक्तित्व उतना साफ और निष्पक्ष नहीं है, जितना उन्हें दिखाया जाता है।

  1. राजनीतिक अस्थिरता: विभिन्न दलों में उनका आना-जाना उनकी वैचारिक दृढ़ता पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। यह उनके राजनीतिक सिद्धांतों की कमी को दर्शाता है।
  2. समुदाय से दूरी: मुस्लिम समुदाय में उनकी छवि एक ऐसे नेता की है, जिसने सत्ता के लिए अपने समुदाय से दूरी बना ली।
  3. सत्ता के साथ समझौता: भाजपा के साथ उनके संबंध और तीन तलाक के मुद्दे पर उनके समर्थन को उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के रूप में देखा गया।

नए राज्यपाल के रूप में चुनौतियां

बिहार में राज्यपाल का पद केवल औपचारिक नहीं है, बल्कि इसमें कई संवैधानिक और प्रशासनिक जिम्मेदारियां शामिल हैं। बिहार जैसे राज्य में, जहां सामाजिक और आर्थिक असमानताएं गहरी हैं, आरिफ मोहम्मद खान को एक निष्पक्ष और कुशल राज्यपाल बनने की चुनौती का सामना करना होगा।

संभावित सवाल

  • क्या वे बिहार में अपनी राजनीतिक स्थिरता और निष्पक्षता को बनाए रख पाएंगे?
  • क्या वे केवल भाजपा की विचारधारा का पालन करेंगे, या बिहार के सभी समुदायों के लिए समान रूप से काम करेंगे?

निष्कर्ष

आरिफ मोहम्मद खान का राजनीतिक जीवन अनुभव और विवादों का मिश्रण है। वे एक पढ़े-लिखे और अनुभवी राजनेता हैं, लेकिन उनकी राजनीतिक अस्थिरता और वैचारिक लचीलेपन ने उनकी छवि को धूमिल किया है। बिहार के नए राज्यपाल के रूप में, उनसे निष्पक्ष और संवैधानिक कार्य की उम्मीद की जाती है। लेकिन, उनके अतीत को देखते हुए, यह कहना मुश्किल है कि वे इन अपेक्षाओं पर खरे उतरेंगे या नहीं।